kya hum azaad hain???


कल शाम coffee हाउस में बैठे हुए एक पुराने दोस्त शर्मा जी मिले. बस फिर coffee के साथ बातो का दौर भी शुरू हो गया. शर्मा जी थोडा परेशान थे मैंने हँसते हुए उनसे परेशान होने की वजह पूछ ली.शर्मा जी ने एक गंभीर भाव के साथ पूछा कि ठाकुर क्या हम सही मायनों में आज़ाद हैं? क्या इसी समाज कि इस्थापना का सपना हमारे क्रांतिकारियों ने देखा था, क्या यही वो जज्बा था जो वन्दे मातरम के शब्दों में हर भारतीय कि रूह में दौड़ता था? शर्मा जी ने काफ्फी का प्याला रखते हुए अपना चश्मा साफ़ करके दोबारा लगाया और काफ्फी हाउस में बैठे हुए २, ४ लोगो को निहारते हुए, फिर से मेरी तरफ मुखातिब हुए बोले कि किस समाज में हम जी रहे हैं ठाकुर, जहा पप्पू पास होता है तो चोकोलेट बांटता है, वो चोकोलेट जो अमेरिका में बन के यहाँ आती है, उस देश में जहा आज भी ७०% लोग २ वक़्त का खाना नहीं जुटा पाते. इस देश में उपभोक्तावाद इस कदर हावी हो गया है कि शोचालयो से ज्यादा मोबाइल फोन हैं. एक बंटवारा अंग्रेजो ने किया था इस देश का १९४७ में धर्म के नाम पैर, और आज़ादी के बाद हमने और आपने सबने मिल कर इस देश के सिर्फ टुकड़े ही किये हैं. शर्मा कि बात मुझे सही लग रही थी, और शायद उन २, ४ लोगो को भी जो उस काफ्फी हाउस में मौजूद थे. शर्मा जी आज बहुत दिनों बाद अचानक ही ज्यादा दुखी थे, पर मैंने उनको टोकना उचित नहीं समझा. शर्मा जी ने अपनी coffee कि आखिरी चुस्की ली और कप को प्लेट में रखते हुए बोले कि आज़ादी के ६२ साल बाद भी आज भी किसी भी नेशनल highway कि दाहिने या बाहिने उतर जाइए देश आपको वही मिलेगा जहा १९४७ में महात्मा गांधी छोड़ के गया था. ६२ साल बाद भी हम इतने मजबूर हैं कि आर्थिक और सामाजिक मुद्दों कि राजनीती छोड़ कर हम अभी भी सम्प्रदाय और धार्मिकता के आधार पर विभाजित हैं. ठंडा मतलब निम्बू पानी, लस्सी और सत्तू हुआ करते थे उनकी जगह कब coke और पेप्सी ने ले ली. उदारीकरण के फेर में हमने अपने देश के सोसिओ इकोनोमिक ढांचे के साथ भेदभाव क्यों होने दिया. में शर्मा कि बातो से सहमत था, उसकी बातो में एक सच्चाई थी और एक सवाल कि ऐसा क्यों हुआ कि ३% लोग ५०० रुपये का पिज्जा खा सकते है और ८० परसेंट लोग महीने में ५०० रुपये खर्च भी नहीं कर सकते? मेरा मनं भी सवालो से घिर चुका था कि क्यों देश कि GDP में ३०% का योगदान देने वाला किसान आज भी  लाचार है और उसकी मेहनत कि दलाली करने वाले ऐशो आराम में हैं? मनं उदास हो गया ?बहुत ही लाचारी सी महसूस हुई और अपने ऊपर भी एक शर्म भी. coffe हाउस का माहौल थोडा भारी सा हो गया? इन अनुत्तरित सवालो के साथ बोझिल मनं से में और शर्मा और शायद वह बैठे वो २, ४ लोगों ने भी coffe हाउस कि सीढियों से बाहर यथार्थ कि दुनिया में कदम रखा...
Share on Google Plus

About Shivam Jadaun

    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment